page contents KARJAIN BAZAR: Kargil Diwas
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Kargil Diwas

कारगिल लडाई क्या थी ? कहाँ हुयी ? कुछ विशेष  हाई लाइटस 



ये गांव हैं पनद्रास। मशहूर युद्व मैदान द्रास के ठीक पहले। राजमार्ग और नियंत्रण रेखा की पहाड़ियों के बीच आम तौर पर पत्थरों के बने घरों वाले इस गांव में अब भी दस साल पहले हुए युद्व की यादे ताजा है।

पनद्रास के निवासी याद करते है कि कैसे गांव के ठीक ऊपर की पहाड़ी पर पाकिस्तानी सेना के लोग घुसपैठियों की शक्ल में घुस आए थे और गांव पर बम बरसाने शुरू कर दिए थे। उस समय तक राजमार्ग पर काफिले निकल रहे थे और फौजों का आना जाना जारी था। फौजों के इन्हीं ट्रकों ने गांव वालों को निकाल कर सुरक्षित जगहों पर पहुंचाया। ज्यादातर जंस्कार नदी के किनारे गोमा कारगिल नाम के एक बौद्व मठ के पास मैदान में महीनों पड़े रहे।

इस गांव के लोग नाराज है कि भारतीय सेना का सामान उठाने में उन्होंने मदद की। बाहर से आए सैनिकों को पास की ही टाइगर हिल तक पहुंचने के आसान रास्ते बताए मगर जब जंग पूरी हो गई तो सरकार उन्हें भूल गई। पास में ही करा़ेडों रुपए लगा कर विजय स्मारक बनाया गया मगर गांव की सुरक्षा के लिए पहाड़ी पर भारतीय सेना का कोई बंकर तक नहीं है।

सरकार ने लिया हो या न लिया हो, गांव वालों दस साल पहले की उस विश्वासघाती लड़ाई से सबक लिया है। उन्होंने घरों में बंकर बनाए हैं और ऐसा एक घर में नहीं किया गया है। अगली बार अगर कभी बमबारी हो तो ये लोग अपनी सुरक्षा के लिए खुद तैयार है।

युद्व की शुरूआत तो इस गांव ने देखी थी मगर फिर सेना ने गांव खाली करवा दिया। इसके बाद ये गोलों की आवाज और दहशत का नजारा दूर से देखते और सुनते रहे। लौट कर आए तो गांव तहस नहस हो चुका था और जानवर मर चुके थे। वह साल की एक मात्र फसल का मौसम था और वह फसल भी नष्ट हो गई थी।

कुछ लोगों की पहल से ये गांव वाले श्रीनगर पहुंचे जहां इनकी कोई सुनवाई नहीं हुई। इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को जानने वाले एक पत्रकार की मदद से ये दिल्ली गए। वहां अटल बिहारी वाजपेयी से मिले और अपना दुख बयान किया। श्री वाजपेयी ने पूरे एक घंटे इनकी बात सुनी, साथ तस्वीर खिंचवाई और कश्मीर सरकार को रकम दे कर मदद करने का वादा किया। मगर गांव वाले याद नहीं कर पाते कि कभी कोई मदद उन्हें मिली हो।

सदियों और पीढ़ियों से नियंत्रण रेखा के पास एक पर्वत की छाया में रह रहे ये लोग अब भी किसी सरकार के भरोसे नहीं है। सेना वाले छोटी मोटी जरूरतों और आपत्तियों में मदद कर देते हैं लेकिन गांव वाले अपने भरोसे ही है। ये सिर्फ एक गांव की कहानी है लेकिन नियंत्रण रेखा पर ऐसे बहुत सारे गांव है।

बोर्ड पर साफ लिखा 
ै कि ये दुनिया की दूसरे नंबर की सबसे ठंडी जगह है जहां लोग रहते है। यह द्रास का बाजार है और पीछे है जम्मू कश्मीर पर्यटन विभाग का डाक बंगला।


कारगिल युद्व में तोप के दो गोले टाइगर हिल से यहां भी गिरे थे। एक को छा़ेड कर सभी कमरे नष्ट हो गए थे। डाक बंगले के बाहर स्वागत का एक बहुत बड़ा बोर्ड जरूर लगा है। नए कमरे बना कर उसका विस्तार भी किया जा रहा है। मगर डाक बंगले में चौकीदार तक नजर नहीं आया। किसी के ठहरने की तो बात ही दूर है।

द्रास के बाजार में वह सभी मिलता है जो देश के दूसरे छोटे बाजारों में मिलता है। लद्दाख का यह इलाका बौद्व और शिया मुस्लिमों से भरा है और यहां इस्लाम की सूफी परंपरा का पालन होता है। कई छोटे मोटे होटल खुले हैं जहां लोग लेह या कारगिल से आते या जाते हुए रात हो जाने पर ठहरते है और यही इन दुकानदारों और इन होटल वालों की आजीविका का एक मात्र साधन है।

फौजियों से द्रास के लोगों की अब अच्छी दोस्ती हो गई है और सेना के लोग अपने घर फोन करने और जरूरत की चीजे खरीदने आते है। यह बाजार बहुत छोटा सा है लेकिन यह सोच कर ही दहशत होती है कि यह हिस्सा कारगिल युद्व के दौरान पाकिस्तानी फौजों के सीधे निशाने पर था।

द्रास के बाजार के आगे फिर पारिवारिक माहौल और सन्नाटा है। पहाड़ों से पिघल कर गिरती हुई बर्फ है और उसी ठंडे पानी से बनी जंस्कार नदी है। यह नदी आगे जा कर उस सिंधु नदी में मिल जाती है और भारत को उसका नाम देने वाली सिंधु नदी पाकिस्तान में चली जाती है। एक छोटे लहराते हुए खतरनाक रास्ते पर लगातार समाधि लेख नजर आते है। ये समाधियां उन सैनिकों की है जो देश को बचाने का जतन करते हुए खाईयों में गिर कर या दुश्मन की फायरिेंग से मारे गए है। द्रास से कारगिल के बीच के रास्ते पर अब भी बोर्ड लगे हैं कि आप दुश्मन की नजर में है। नदी के उस पार पाकिस्तान है और इस तरफ भारत का एक बहुत महत्वपूर्ण रास्ता जो खुद भारतीय फौजों के अनुसार असुरक्षित है।

आसमान से बाते करती बर्फ से जुलाई के महीने में भी ढकी एक चोटी नाम है टाइगर हिल। कुछ याद आया आपको? ये वही टाइगर हिल है जिस पर बैठे पाकिस्तानी शैतानों ने इस राजमार्ग पर कब्जा करने के लिए सबसे ज्यादा हमले किए थे और जिस वापस जीतने के लिए भारतीय सेना को ४० लोगों की जान गवानी पड़ी थी और यह कारगिल युद्व का सबसे विकट ऑपरेशन था।

ध्यान से देखिए। पहाड़ की चोटी तक पहुंचने का कोई सुगम रास्ता नहीं है। बर्फ बहुत धोखेबाज है और एक बार फिसले तो पता नहीं किस खाई में जा कर गिरेंगे। फिर भी वायुसेना की मदद से ८ जुलाई १९९९ को ग्रेनेडियर रेजीमेंट की १८वीं बटालियन ने टाइगर हिल से पाकिस्तानियों को खद़ेड दिया था। सिर्फ इस एक लड़ाई के एक परमवीर चक्र और दो महावीर चक्र दिए गए थे।

१९९८ में यानी युद्व के कुछ महीने पहले कारगिल में एक युद्व अभ्यास किया गया था। उसी दौरान बड़े अधिकारियों को बता दिया गया था कि टाइगर हिल की चोटियों पर पाकिस्तान कब्जा करने की कोशिश कर रहा है। ३० जनवरी १९९९ को तीसरी इन्फेंटरी डिवीजन के मेजर जनरल वी एस बुधवार को कमांडरों ने एक पत्र लिख कर ये चेतावनी दी थी। पत्र पर कर्नल पुष्पेंद्र ओबेराय के दस्तखत थे। आश्चर्यजनक रूप से एक्सरसाइज जांच नाम के इस युद्व अभ्यास में मुख्य भूमिका निभाने वाले कर्नल ओबेराय को बजरंग नाम की एक चोटी खाली कर देने का इल्जाम लगा कर सरेआम वर्दी उतार कर सेना से निकाल दिया गया था।

चेतावनी की इस चिट लिखा हुआ था कि जब तक टाइगर हिल पर पाकिस्तानियों का कब्जा रहेगा तब तक राष्ट्रीय राजमार्ग वन डी सुरक्षित नहीं है। मगर पता नहीं क्यों इस पत्र पर ध्यान नहीं दिया गया। नतीजे में टाइगर हिल को फिर से पाने के लिए सबसे ज्यादा जाने गंवानी पड़ी। पाकिस्तानी परियों का तालाब की ओर से आए थे और आखिरी दम तक लड़े थे। बाद में उनके सैनिक अपनी साथियों के लाशे तक छा़ेड गए थे जिन्हें भारतीय सेना ने बाइज्जत वापस किया। आश्चर्यजनक रूप से कारगिल युद्व की जांच करने वाली समिति ने कहीं भी एक्सरसाइज जांच नाम के युद्वाभ्यास का कोई जिक्र तक नहीं किया। अब टाइगर हिल पर सर्दियों में भी अपार बर्फ के बीच शून्य से ७० डिग्री नीचे नाम मात्र की आक्सीजन में भारतीय सैनिक पहरा देते है। कारगिल के विश्वासघात से भारतीय सेना ने यह सबक जरूर सीखा है।

द्रास और कारगिल के बीच बनाया गया है विजय स्मारक। तोलोलिंग और थ्री पिंपल्स नाम की पहाड़ियों के बीच बने इस स्मारक की दीवारों पर वे हजारों नाम है जो टाइगर हिल और इन पहाड़ियों को बचाने में शहीद हो गए।

ये लोग देश के हर कोने से आए थे। ये लड़े और आखिरी सांस तक लड़े। दुश्मन की गोलिया सीने पर खाई और आखिरकार कर चले हम फिदा जानो तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों का नारा बुलंद कर के ताबूतों में बंद हो कर अपने अपने घर के पास के मरघट या कब्रिस्तान तक पहुंच गए।

२६ जुलाई को यहां हर साल विजय दिवस मनाया जाता है। सैनिकों की वीरता की कहानियां कही जाती है। अक्सर रक्षा मंत्री आते हैं और उस हैलीपैड पर हैलीकॉप्टर से उतरते हैं जो इसी लड़ाई में शहीद हुए सिर्फ २२ साल के कैप्टन विजयंत थापर की याद में बनाया गया है। शहीद विजयंत थापर को वीर चक्र दिया गया था।

मरने के पहले विजयंत थापर अपने परिवार के नाम एक पत्र छा़ेड गया था जिसमें उसने गर्व से कहा था कि वह या तो जीतेगा या फिर जिंदा नहीं लौटेगा। इस हैलीपैड का उद्घाटन शहीद विजयंत के पिता कर्नल वी एन थापर ने किया है। कर्नल थापर भी वीरता के लिए वीर चक्र प्राप्त कर चुके हैं।

दस साल पहले लड़ाई का निशाना कारगिल शहर नहीं था। हालांकि गोले यहां भी गिरे लेकिन ज्यादा नुकसान नहीं हुआ। मगर इसी कारगिल शहर में युद्व से बेघर हुए शरणार्थियों का सबसे बड़ा बसेरा बना हुआ था।

आज कारगिल शहर अपनी रफ्तार चल रहा है। दुकाने खुली है, बाजार में ठीक ठाक चहल पहल है। बटालिक छावनी की तलहटी में बसे इस छोटे से शहर से सिर्फ पचास किलोमीटर दूर पाकिस्तान का स्कार्दू है जो वहां का एटमी जखीरा रखता है। वैसे कारगिल से पाकिस्तान की जमीन बहुत दूर नहीं है। था़ेडी ऊंचाई पर खड़े हो कर पाकिस्तान नजर आ जाता है। बीच में सिंधू नदी बहती है और उस पार पाकिस्तान है।

१९७१ में कारगिल के साथ अन्याय हुआ था। भारतीय सैनिकों ने अपनी जान पर खेल कर और जान गंवा कर जो इलाका जीता था वह शिमला समझौते में वापस कर दिया गया। कारगिल बारूद की नदी के किनारे बैठा है। मगर यहां के लोग हिम्मत दिखा रहे हैं। इसके बावजूद सरकार खासे नाराज नजर आते है। 



कारगिल शहर का था़ेडा विकास तो हुआ है लेकिन सड़के ठीक हो जाने और कुछ नई इमारते बन जाने के अलावा इस विकास की शक्ल नजर नहीं आती। कोई सवा लाख आबादी वाले कारगिल में आज तक आतंकवाद की कोई घटना नहीं हुई। यहां शिया पंथ और बौद्व दोनों का जोर है और ईरान के धर्म गुरू और शासक रहे अयातुल्ला खोमैनी की तस्वीरे जगह जगह नजर आ जाती है।


१९४७ की भारत पाक लड़ाई के दौरान भी कारगिल के द्रास और जोजिला इलाके में भयंकर युद्व हुआ था और १९६५ की लड़ाई में दो बार पाकिस्तान के कब्जे से कारगिल का बहुत बड़ा हिस्सा भारत के कब्जे में आ गया था। मगर संयुक्त राष्ट्र के कहने पर इसे वापस करना पड़ा। १५ अगस्त १९६५ को भारतीय सेनाओं ने कारगिल फिर छिन लिया मगर ताशकंद में हुए समझौते के दौरान लाल बहादूर शाी ने जिद कर के कारगिल को वापस प्राप्त कर लिया।

कारगिल शहर के लोग अब भी नहीं मानते कि वे सुरक्षित है मगर ये जज्बा उनमें अब भी कायम है कि अगर हमला हुआ तो हमेशा की तरह भारतीय सेना उन्हें सुरक्षित बचा लेगी। अब यहां एक हवाई अड्डा भी बन गया है मगर उड़ान सप्ताह में सिर्फ एक है। ये उड़ान भी तभी चलती है जब जो-जिला पास का रास्ता बर्फ से बंद हो जाता है।

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