page contents KARJAIN BAZAR: रवि किशन के साथ काम करने में असहज महसूस करता हूँ-मनोज तिवारी
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रवि किशन के साथ काम करने में असहज महसूस करता हूँ-मनोज तिवारी

MANOJ TIWARI



Manoj Tiwari

गायक से नायक बनाने के ट्रेंड पर: दरअसल, गायक से नायक बने सितारे पूर्व से ही स्टार होते हैं। वे फिल्मों के लिए भले ही नये हों, लेकिन दर्शकों के लिए नये नहीं होते हैं। वे पहले से ही उनके हृदय में अपनी गायकी और अपने अलबमों के ज़रिये बसे होते हैं। जब वे फिल्म में आते हैं तो अपने स्टार को सिनेमा के बड़े पर्दे पर देखने की ललक में फिल्म को सफल बना देते हैं। मैं, दिनेश जी, पवन जी और अब खेसारी लाल जी सभी इसी श्रेणी में आते हैं। फिल्मों में आने से पूर्व हम कोई अंजाने नाम नहीं थे। हमारा क्रेज बना हुआ था। हम स्टेज शोज करते थे। हमारा म्यूजिक कैसेट बाजार में उपलब्ध था। मैं तो यह कहूंगा कि फिल्मों में आने पर हमारी हैसियत कम हो जाती है, स्टारडम में कमी आ जाती है।

साथी नायको के साथ काम करने के बारे में: मैं दिनेश जी और पवन जी के साथ अधिक सहजता महसूस करता हूं। ये दोनों स्टार सहज अभिनेता हैं, अपने चरित्र को बखूबी समझते हैं। और कहानी की मांग और चरित्र की विशेषताओं को ध्यान में रखकर चरित्र को जीते हैं। जबकि रवि किशन जी के साथ काम करने में असहजता आ जाती है। वे चरित्र को पर्दे पर जीने की कोशिश नहीं करते बल्कि रवि किशन को जीने की कोशिश करते हैं। जो साथी कलाकारों और निर्देशकों को भी असहज बना देता है।
भोजपुरी भाषा में एतिहासिक फिल्में ना बनने पर: अभय सिन्हा नहीं चाहते। जिस दिन चाह लेंगे उसी दिन बन जाएगी। वास्तव में ऐतिहासिक फिल्में बनाना आसान नहीं होता। इतिहास के वातावरण को बनाने के लिए रिसर्च की आवश्यकता होती है। फिल्म में उस माहौल को फिल्माने के लिए बड़े बजट की आवश्यकता होती है। भोजपुरी के अधिकांश निर्माताओं के पास इस प्रकार का इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है। मुझे लगता है कि भोजपुरी सिनेमा में कोई सक्षम निर्माता है जो ऐतिहासिक फिल्म बना सकता है तो वह सिर्फ अभय सिन्हा हैं। मैंने कहा कि वे नहीं चाहते इसीलिए नहीं बनी है।
भोजपुरी फिल्मों की वर्तमान दशा के बारे में: पूरी तरह संतुष्ट नहीं हूं। कथा और प्रस्तुतिकरण से संतुष्ट नहीं हूं। आज की अधिकांश फिल्में सेक्स के आसपास घूमती हैं। इससे उनकी मास अपील कम हो जाती है। हम अपनी फिल्मों से अपने दर्शकों को अच्छी फिल्में देखने को प्रेरित नहीं करते बल्कि उनकी यौन पिपासा को शांत करने का माध्यम बन गये हैं। अगर अन्य क्षेत्रीय भाषाओं, खास कर मराठी फिल्मों की बात करें तो इस उद्योग ने अच्छी फिल्में बना कर दर्शकों के टेस्ट को बदलने का काम किया है, उन्हें मराठी में बनी क्लासिक फिल्मों को देखने का चस्का लगा दिया है। जबकि पूर्व में मराठी में भी वैसी ही फिल्में बनती थीं जैसी आज भोजपुरी में बनती हैं। उस समय के मराठी फिल्मों के अगुआ थे दादा कोंडके। यह सही है कि दादा कोंडके की सभी फिल्में सफल रही थीं, लेकिन बाद में बनी मराठी की संवेदनशील फिल्मों को भी दर्शकों ने अपनाया। एक बात और, मुझे इस बात की संतुष्टि अवश्य है कि अब भोजपुरी फिल्मोद्योग बंद नहीं होगा। भोजपुरी भाषा-भाषियों का काफी विस्तार हुआ है। अब उनकी उपस्थिति अखिल भारतीय हो गई है। अपने परिवार से अलग हुए लोगों में अपनों से जुड़ने का माध्यम भोजपुरी सिनेमा बना है।
पिछली असफल फिल्मों के बारे में: पिछले साल आई मेरी फिल्म ‘रणभूमि’ सफल रही है। एक बात और मेरी फिल्में अच्छी बनी हैं। कालांतर में उन्हें ही याद रखा जाएगा और देखा जाएगा। और जहां तक हिट और फ्लाॅप का गणित है तो यइ इण्डस्ट्री झूठ पर टिकी हुई है। सात-आठ लोगों की टीम है जो मिल कर इंटरनेट पर फिल्मों को हिट और फ्लॉप कराते रहते हैं। मुंबई में बैठ कर ब्रांड नहीं बनाया जा सकता। भोजपुरी प्रदेशों में जाएं तो पता चलेगा कि ब्रांड वैल्यू क्या है? आप कहते हैं कि मेरी फिल्में असफल रही हैं। अगर ऐसा होता तो मुझे शोज नहीं मिलते। मैं सिंगर हूं, आज मेरे पास शोज की भरमार है। मेरे शोज मंहगे बिक रहे हैं। मार्केट में मेरा क्रेज है। बड़ी-बड़ी बातें करने से इण्डस्ट्री बड़ी नहीं हो जाती है। जो लोग ऐसा करते हैं, उन्हें ज़मीनी हक़ीक़त को पहचाननी चाहिए।

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